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माहं म॒घोनो॑ वरुण प्रि॒यस्य॑ भूरि॒दाव्न॒ आ वि॑दं॒ शून॑मा॒पेः। मा रा॒यो रा॑जन्त्सु॒यमा॒दव॑ स्थां बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

māham maghono varuṇa priyasya bhūridāvna ā vidaṁ śūnam āpeḥ | mā rāyo rājan suyamād ava sthām bṛhad vadema vidathe suvīrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। अ॒हम्। म॒घोनः। व॒रु॒ण॒। प्रि॒यस्य॑। भू॒रि॒ऽदाव्नः॑। आ। वि॒द॒म्। शून॑म्। आ॒पेः। मा। रा॒यः। रा॒जन्। सु॒ऽयमा॑त्। अव॑। स्था॒म्। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒ऽवीराः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:27» मन्त्र:17 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:8» मन्त्र:7 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) श्रेष्ठ सज्जन (राजन्) सत्य के प्रकाश करनेहारे राजन् (अहम्) मैं (आपेः) प्राप्त होनेवाले (भूरिदाव्नः) बहुत धन देनेवाले (प्रियस्य) कामना के योग्य (मघोनः) प्रशस्त धनवाले पुरुष की (शूनम्) वृद्धि को (म,आ,विदम्) न प्राप्त होऊँ किन्तु (सुयमात्) सुन्दर नियम कराने (रायः) धन से (मा,अव,स्थाम्) न अवस्थित होऊँ और उसकी प्राप्ति का यत्न अवश्य किया करूँ और अन्यथा खर्च न करूँ ऐसा (विदथे) विज्ञान के व्यवहार में (सुवीरा) सुन्दर वीरोंवाले हुए हम लोग (बृहत्) बड़ा गम्भीर (वदेम) उपदेश करें ॥१७॥
भावार्थभाषाः - धनाढ्य लोगों को चाहिये कि राजपुरुषों के साथ विरोध कदापि न करें और न अन्याययुक्त व्यवहार में न्याय से उपार्जन किये धन का कभी खर्च करें और सदैव सर्वव्यापक परमात्मा की आज्ञा में वर्त्तें ॥१७॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों आदि का वर्णन होने से इस सूक्त की पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह सत्ताईसवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे वरुण राजन्नहमापेर्भूरिदाव्नः प्रियस्य मघोनः शूनमाविदम्। सुयमाद्रायो मावस्थामन्यथा व्ययं मा कुर्यामेवं कृत्वा विदथे सुवीरा वयं बृहद्वदेम ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) (अहम्) (मघोनः) प्रशस्तधनयुक्तस्य (वरुण) श्रेष्ठ (प्रियस्य) कमनीयस्य (भूरिदाव्नः) बहुदातुः (आ) (विदम्) प्राप्नुयाम् (शूनम्) वर्द्धनम् (आपेः) य आप्नोति तस्य (मा) (रायः) धनात् (राजन्) सत्यप्रकाशक (सुयमात्) शोभनो यमो यस्मिँस्तस्मात् (अव) (स्थाम्) तिष्ठेयम् (बृहत्) (वदेम) (विदथे) (सुवीराः) ॥१७॥
भावार्थभाषाः - धनाढ्यैश्च राजपुरुषैः सह विरोधः कदापि न करणीयः। न चाऽन्याय्ये व्यवहारे न्यायोपार्जितधनस्य व्ययः कार्यः सदैव सर्वव्यापकस्य परमात्मन आज्ञायां च ते वर्त्तेरन्निति ॥१७॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति सप्तविंशतितमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - धनाढ्य पुरुषांनी राजपुरुषांना कधीही विरोध करू नये व अन्याययुक्त व्यवहारात न्यायाने उपार्जन केलेले धन कधी खर्च करू नये. सदैव सर्वव्यापक परमेश्वराच्या आज्ञेत राहावे. ॥ १७ ॥